बंद रास्तों से निकलकर
रात भर तेज़ बारिश होती रही थी. ऊपर वाले फ्लोर पर रहने के कारण छत पर पड़ रही तेज बूंदे टपा टप करती और इस शोर से उसको नींद नहीं आती. सुधा चुपचाप सो रही थी. उसकी नींद वैसे भी मेरी तरह हलकी नहीं थी. मेरा तो यह हिसाब था की हलकी सी खटपट से टूट जाती थी. किसी ने लाइट ऑन ऑफ की, किसी ने थोड़ी आवाज कर दी, कमरे से अटैच बाथरूम का नलका चला और मेरे नींद टूट गई.
आज सुबह तो मैं ५ के आसपास ही उठ गया. कल रात को पनीर सैंडविच ने शायद काम ख़राब कर दिया था. हो सकता है इसी वजह से नींद नहीं आयी हो. मुझे खुद पर खीज सी आ रही थी. सोच रहा था कि सुधा आज क्यों नहीं जगी अबतक। रोज़ पांच बजे के अलार्म से वो उठ जाती थी; लगभग हर रोज उसके उठने के साथ ही मुझे भी उठना पड़ता था. अगर उठकर बाहर न भी जाऊं तो भी बिस्तर पर पड़ा पड़ा करवट बदलता रहता था. आज उसके अलार्म से पहले मैं उठा और उसका अलार्म बजने से पहले ही बंद कर दिया. वो सोती रही.
बच्चों के कमरे मे गया, दोनों बहने सो रही थीं. कितना समय बीत गया कितनी जल्दी। बच्चे कब इतने बड़े हो गए. बिना आवाज़ किये बाहर चला आया. ब्रश करते हुए पूरे घर में घूमता रहा. फिर किचन में पहुँचकर चाय बनाने लगा. सुधा को चाय से नफरत जितना प्यार था. मैं चाय लेकर ऊपर गया, कमरे में बैठा, फ़ोन पर मैसेज चेक करने लगा तो उसने करवट लेते हुए कहा, “मुहं धोया या पहले चाय बनाकर लाये हो?”
“सिर्फ दूध में पत्ती डाली है. चाय नहीं है” यह मेरा स्टैण्डर्ड जवाब हुआ करता था
“हुम्म्म… ” और यह सुधा की स्टैण्डर्ड प्रतिक्रिया
“सुनो, सुरभि को कल कहानी भेजी थी ”
“कौन सी ?” सुधा ने
“जो कल तुम्हे सुनाई थी. उसका जवाब आया है”
“फिर?”
मुझे लगा शायद समय ठीक नहीं है. वैसे भी सुरभि का जिक्र आते ही मुझ में असहजता आ जाया करती थी. घबराहट, अधीरता और कुबलाहट का एक अनोखा सा भाव. सुरभि को मैं २० -२२ साल से जानता था एक समय था जब सुरभि पृथाश्री और आकाश तिवारी के किस्सों की गूँज पूरे मोहल्ले में थी
पढ़ाकू बंगाली सुरभि और एक नंबर का तिकड़मबाज आकाश. मुँहफट आकाश और सौम्य सुरभि शिउली के फूल जैसी सुन्दर थी सुरभि.
हम दोनों की जोड़ी हमारे मोहल्ले में तो बहुत बाद में चर्चा का विषय बनी उससे बहुत पहले कॉलेज के सर्किल में चर्चा मे आयी. सुरभि मुझसे एक साल सीनियर थी. और क्योंकि पढाई मे मुझे काफी बेहतर भी उसने दिल्ली यूनिवर्सिटी के हिन्दू कॉलेज मे एडमिशन लिया था. मेरे अगले साल जो नंबर आये उसके चलते दयाल सिंह मे एडमिशन मिला. मुझे पहली बार वो एक डीटीसी बस में मिली थी और पहली ही बार मे मैंने उसे क्लास बंक करने के लिए राजी कर लिया था. उसके दिन के बाद शायद हमने उस पूरे महीने फिर क्लास अटेंड ही नहीं की. दिल्ली के सभी चर्चित पार्कों के हर पुराने गुम्बद की दीवार पर हमने दिल खींचकर अपने नाम लिखे.
उसी दौरान मुझे मच्छी की वैरायटी से लेकर हर मच्छी का अलग अलग स्वाद है, अलग अलग बनाने का तरीका – इस सब का ज्ञान मिला.
“ईलिश माछ तो बांग्लादेशी कहते हैं; वो कहाँ के असली बंगाली. हम बंगाली तो रोहू, रुई, पॉम्फ्रेट के दीवाने हैं. एक दिन तुम्हारे लिए चिंगरी लाऊंगी” बंगाली खाने पर बात में उसकी बहुत रूचि थी
आगे के २-४ महीनों मे मैंने बकर-बकर करते शायद पूरा थीसिस लिख डाला था और उसका शीर्षक था ‘बंगालन इतनी हॉट क्यों होती हैं?’- ललित कलाओं में उनकी रूचि, आजाद ख्याल मे उनका कोई सानी नहीं, पढाई लिखाई मे हमारी नार्थ इंडियन लड़कियों से यकीनन आगे, खुले विचारों वाली, बहुभाषी – हिंदी उनको आती; अंग्रेजी पिक्चर दिखा लो; बंगाली तो हैं ही. फिर मैंने कोई बंगाली लड़की नहीं देखी जिसका विवाह पूर्व एक घनिष्ट पुरुष मित्र न रहा हो- और लगभग सबकुछ मान्य. ऐसा भी नहीं की यहाँ रिश्ते की शुरुवात हुई और ६ महीने में पूछने लगें – शादी कब करोगे. शादी की तो कोई जल्दी ही नहीं. नहीं तो न सही और करनी है तो अभी नहीं.
सुरभि ही एक मात्र बंगाली लड़की थी जिसे मैं जानता था, इसलिए हो सकता है मेरी थीसिस सर्वमान्य न हो लेकिन मेरा जो अनुभव था वो ही मैं बघारा करता था.
कॉलेज मे हर कोई हमें रश्क़ से देखता था। कॉलेज के दोस्तों में यह बात थी की दोनों हम दोनों शादी करेंगे. सुरभि ने अपने पापा को थोड़ा-बहुत बता भी रखा था.
देखते देखते उसका आखिरी सेमेस्टर आ गया और प्लेसमेंट के शोर-शराबे में ये बातें दब गयीं. मुझे अभी साल भर बाकि था. उसको ग्रेजुएशन के बाद किसी अच्छी यूनिवर्सिटी मे रिसर्च का भूत सवार था. वो पता करने मे लग गयी. उसके पिता डॉक्टर थे, वो चाहते थे सुरभि पहले पीएचडी कर ले उसके बाद नौकरी करे।
मेरे पैरेंट्स को मुझसे उतनी ही उम्मीद थी जितनी एवरेज स्टूडेंट के माँ-बाबूजी को होनी चाहिए. यह कंप्यूटर कोर्सेज का दौर था. ग्रेजुएशन के पहले साल में मेरे पेरेंट्स ने मुझे कंप्यूटर कोर्स में डाल दिया था. उनको बस इतना चाहिए था की लड़का ग्रेजुएशन करे, और हो सके तो US चला जाये.
माँ को जब मैंने पहली बार बताया था सुरभि के बारे में तो उनका टिपिकल नार्थ इंडियन जवाब था, “रंग थोड़ा दबा दबा सा नहीं है बेटा.” फिर अगले १०-१५ दिन तक अलग अलग मौके पर बोलती रही थी और सब बातों का निचोड़ इतना ही था, ” सुरभि हमारे परिवार और रिश्ते-नातों में रच-बस पायेगी क्या?”
महीने भर उन्होंने कहना शुरू कर दिया था, “और सब तो मैं सह लूंगी लेकिन मांस-मच्छी खाना तो इस घर में नहीं चलेगा”
“कोई बात नहीं, किचन अलग कर देना” यह जवाब मै २०-२१ साल की उम्र में दे रहा था.
आखिरकार वही हुआ जो होना था. सुरभि को अमरीका की यूनिवर्सिटी में अच्छी स्कॉलर्शिप मिल गयी और वो मास्टर्स के लिए वहां चली गयी. जाते हुए उसने मुझसे पुछा था, तुम्हारा क्या प्लान है? मेरा कोई प्लान नहीं था. इसलिए मैंने तीन चार प्लान बता दिए. उनमे से एक था, मै सोच रहा हूँ ग्रेजुएशन के साथ साथ कंप्यूटर कोर्स ख़तम हो जायेगा. किसी मल्टीनेशनल में अप्लाई करूंगा और फिर में भी अमरीका.
उसके जाने के बाद पांच सात महीने तक हमारी बात चीत होती रही. वो ऑरकुट और ईमेल का ज़माना था. उसके बाद मेरा लास्ट सेमेस्टर शुरू हो गया. और आखिरकार मुझे अच्छी कम्पनी में प्लेसमेंट मिल गयी. लेकिन अमरीका वाला प्लान कभी नहीं बना.
“बोल यार क्या लिखा है उसने?” सुधा ने बेड से उठते हुए कहा.
“तुम्हारी कहानियों में कुछ होता ही नहीं. कुछ पैदा भी तो किया करो. क्या कहते हो तुम अपनी कहानियों को – न प्रेम है, न घृणा, न कोई शोकपूर्ण घटना, न पुनर्जम और न ही तुम्हारे पात्र रंक से राजा या फिर राजा से रंक बनते हैं, न बाहरी खोज न अंतर की खोज. तुम्हारे पात्र कहीं की यात्रा भी नहीं करते. आखिर तुम्हारी कहानियों को तुम किस श्रेणी में रखते हो ?” मैंने ज्यों का त्यों उसका मैसेज पढ़ कर सुना दिया
“तो तुमने क्या जवाब दिया ?” सुधा से मुझे प्रश्न की आशा नहीं थी. मुझे था की वो कहे, सुरभि बकवास कर रही है, उसको क्या पता कहानी क्या होती है.
“मैंने इतना लिखा की मेरी कहानियां मेरे अंदर के जटिल विचारों को अपने कंधे से उतार कर रखने की प्रक्रिया का नाम है”
“तुम दोनों इसीलिए बात करते हो न क्योंकि तुम दोनों को लगता है की तुम अलग लेवल पर कनेक्ट करते हो” सुधा हमेशा यही कहती थी.
“मतलब?” मैंने पूछा
“तुम ही तो कहते हो, सुधा तुम पत्नी हो; तुमसे कुछ चुप नहीं सकता. तुम मुझे जानती हो. लेकिन मेरे अंतर में पिता, पति, पुत्र के अतिरिक्त जो बैठा है उसको किसी ऐसे साथी की तलाश रहती है जो उसे जज न करे. वो पत्नी के साथ नहीं हो सकता क्योंकि पत्नी से कुछ छुपता नहीं” सुधा से यह बात मै कई बार कर चूका था
“हाँ यह तो सही है.”
“तो सुरभि तुम्हे नहीं जानती या जानती है?”
“सुरभि मुझे जानती है लेकिन नहीं जानती. मतलब उसको पता है आकाश कौन है लेकिन क्योंकि वो मेरे साथ नहीं रहती, इसलिए हमारे बीच सिर्फ उतना ही साझा है जितना हम साझा करने को राजी हों. ऐसे में कई बार सुरभि और आकाश बात तो करते हैं लेकिन उस समय वो सुरभि और आकाश नहीं होते. मुझे कुछ अलग बनकर और उसे कुछ अलग बनकर बात करने का मौका मिलता है” मैंने कहा
“मुझे कभी सुधा के आलावा कुछ और बनने की चाह नहीं होती.” उसने बोला और फिर खुद ही शायद सोचने लगी. ब्रश करते हुए उसने इशारे से कहा, “फिर उसने जवाब दिया?”
नहीं अभी अमरीका में तो रात होगी. मैंने अभी अभी जवाब लिखा है. शायद शाम को जवाब देगी. खैर….
“और भी किसी को भेजी थी?”
“हाँ. ऑफिस में कुछ लोगों को, कुछ लोगों ने जवाब दिया है. वही नार्मल टाइप – अच्छी है, बहुत बढ़िया टाइप” मैंने कहा
“और किसे भेजी ?” सुधा जानती थी मैंने राधा को भी भेजी होगी