रात कि चपेट से भागता हुआ दिन
पहले ठहरता है मेरे अमरुद पर
फिर लगाकर छलांग जमीन पर भागकर चढ़ जाता है
मंदिर की मुंडेर पर, बजाता है मंदिर की घंटियाँ
रास्तों गलियों की धूल मिटटी से बचता
जब वापिस लोटता है मेरे तंग कमरे में
चाय की प्याली बस तभी पहुँचती है दूसरे दरवाजे से
फिर ताज रफ़्तार बस में सवार होकर
मेरी ऑफिस की ऊंची बिल्डिंग पर खड़ा हो जाता है
चूमता है कुछ फ़ाइल, कुछ दराजों के जिस्म हिलता, सहलाता
चलता है मेरे साथ कदम से कदम मिलाता कुछ देर
फिर जाने किस सख्त चीज से टकराता है
की दूर अस्ताचल क़े उस पार गिर जाता है
रात की चपेट में आ जाता है